चार वर्ण: Difference between revisions

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(३. परमहंस विशुद्धानंद जी के प्रसंग)
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==== २. वर्ष १९१८ में परमहंस विशुद्धानंद जी का प्रसंग ====
==== २. वर्ष १९१८ में परमहंस विशुद्धानंद जी का प्रसंग ====
दीक्षा उपरांत शिष्य की जिज्ञासा का उत्तर देते हुए कहते हैं -
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==== ३. वर्ष १८९१ में परमहंस विशुद्धानंद जी का प्रसंग ====
विवाह उपरान्त गौने पर जब इनकी पत्नी इनके घर आई तो इन्होंने उसकी आकृति देखकर अपनी योगसिद्धि के द्वारा विचार किया तो जाना कि वह पूर्व जन्म में एक अछूत कुल में जन्मी थी। फिर ये अपनी पवित्रता और शुचिता को सुरक्षित रखने के विचार से अपनी पत्नी के शयनकक्ष में नहीं गए।


समाधान करने के लिए इनकी माताजी ने इनके दादा गुरूदेव से प्रार्थना की।


 
दादा गुरूदेव ने समझाया -
"यदि एक व्यक्ति ऊँची जाति में जन्म लेकर साधना द्वारा और भी ऊँचा हो जाए तथा दूसरा व्यक्ति पूर्व जन्म में नीची जाति में जन्म लेकर भी इस जन्म में उच्च वर्ण में जन्म लेकर तुम्हारे समान पति प्राप्त करे, तो बताओ दोनों में से किसका संस्कार महान है?" <ref>{{cite book |last1=गुप्त |first1=नन्दलाल |title=स्वामी विशुद्धानन्द परमहंसदेव जीवन और दर्शन |date=२००१|publisher=विश्वविद्यालय प्रकाशन |location=वाराणसी |pages=४४,४५ |edition=तृतीय |url=https://www.vvpbooks.com/bookDetail.php?bid=290}}</ref>
==== वर्ष २०२३ ====
यूपी में विशेष रूप से पूर्वांचल में आम व्यवहार में स्वयंबोध कमजोर हो गया है। बहुत कम घरों में गीता मिलती है (१० प्रतिशत से कम), उसमें भी सब नहीं पढ़ते। इसलिए अज्ञानवश शूद्रों से कठोर/रूखा व्यवहार देखा जाता है।
यूपी में विशेष रूप से पूर्वांचल में आम व्यवहार में स्वयंबोध कमजोर हो गया है। बहुत कम घरों में गीता मिलती है (१० प्रतिशत से कम), उसमें भी सब नहीं पढ़ते। इसलिए अज्ञानवश शूद्रों से कठोर/रूखा व्यवहार देखा जाता है।



Revision as of 13:15, 22 August 2023

चार वर्ण

कौन से

गीता १८:४१ में भगवान श्रीकृष्ण ने चार वर्णों का नाम बताया - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

चारों वर्णों के कर्तव्यों का वर्णन - गीता १८:४२, गीता १८:४३ और गीता १८:४४ में है।


किसने बनाए

गीता ४:१३ में भगवान श्रीकृष्ण ने चार वर्णों को अपनी सृष्टि बताया। जिसका आधार गुण(सत्व,रज और तम)[1] और कर्म (पिछले जन्मों के) हैं।

कोई भी घृणा का पात्र नहीं है। [2]


आदर्श व्यवहार

गीता ५:१८ जो इन चारों में सम देखता है वही देखता है। (बाकी को कमजोर दृष्टि या अंधा समझ सकते हैं)


जन्म से या कर्म से

यह समझने के लिए गीता ४:५ ले ४:४२ तक एकसाथ पढ़ना पड़ता है। पुनर्जन्म, कई बीते जन्मों, अवतार के जन्म और कर्म की दिव्यता, धर्म के उत्थान के लिए अवतारका उपदेश है।

गीता ४:३४ में तत्त्वदर्शी महापुरूष से मर्म जानने का उपदेश है।

जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था सूक्ष्म दृष्टि संपन्न ही जान सकता है।

आजकल

१. वर्ष १९६५ में श्री भूपेंद्रनाथ सान्याल जी लिखते हैं

"बहुत से लोग कहते हैं कि आजकल का चार प्रकार का वर्णभेद अनादिसिद्ध व्यापार नहीं है। यह लौकिक चेष्टा का फल है। अतएव वे जाति या वर्ण के विभाग को मनुष्याकृत मानकर इसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। परन्तु यह धारणा ठीक नहीं है, वे लोग भगवान के गुणकर्मविभाग को ठीक समझ नहीं पाते। इस कारण आजकल बहुत से लोग इस प्रकार के वर्णविभाग के विरूद्ध आचरण करते हैं, और सनातन प्रथा के विद्रोही होकर यथार्थ उन्नति के पथ में विघ्न उपस्थित करते हैं। यह जातिभेद अनादि काल से चला आ रहा है। ऋग्वेद-संहिता में लिखा है -

            ब्राह्मणोस्य मुखमासीदबाहु राजन्यः कृतः।
            ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पदभ्यां शूद्रो अजायतः।।

कोई माने या न माने, जातिभेद प्रकारान्तर से पृथ्वी में सर्वत्र विद्यमान है। परन्तु भारतवर्ष में यह जन्मगत है, इसके भी यौक्तिक और वैज्ञानिक हेतु हैं। प्राचीन ऋषि लोग इतने सूक्ष्मदृष्टि सम्पन्न थे कि वे मनुष्य ही क्यों, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, यहां तक कि नद-नदी, वृक्ष-पर्वत आदि में भी चार प्रकार की जातियों के अस्तित्व का अनुभव करते थे।" [3]

२. वर्ष १९१८ में परमहंस विशुद्धानंद जी का प्रसंग

दीक्षा उपरांत शिष्य की जिज्ञासा का उत्तर देते हुए कहते हैं - "ब्राह्मण शरीर है, गायत्री-जप करते ही होगे, किन्तु उसका महत्त्व नहीं जानते।" [4]

३. वर्ष १८९१ में परमहंस विशुद्धानंद जी का प्रसंग

विवाह उपरान्त गौने पर जब इनकी पत्नी इनके घर आई तो इन्होंने उसकी आकृति देखकर अपनी योगसिद्धि के द्वारा विचार किया तो जाना कि वह पूर्व जन्म में एक अछूत कुल में जन्मी थी। फिर ये अपनी पवित्रता और शुचिता को सुरक्षित रखने के विचार से अपनी पत्नी के शयनकक्ष में नहीं गए।

समाधान करने के लिए इनकी माताजी ने इनके दादा गुरूदेव से प्रार्थना की।

दादा गुरूदेव ने समझाया - "यदि एक व्यक्ति ऊँची जाति में जन्म लेकर साधना द्वारा और भी ऊँचा हो जाए तथा दूसरा व्यक्ति पूर्व जन्म में नीची जाति में जन्म लेकर भी इस जन्म में उच्च वर्ण में जन्म लेकर तुम्हारे समान पति प्राप्त करे, तो बताओ दोनों में से किसका संस्कार महान है?" [5]

वर्ष २०२३

यूपी में विशेष रूप से पूर्वांचल में आम व्यवहार में स्वयंबोध कमजोर हो गया है। बहुत कम घरों में गीता मिलती है (१० प्रतिशत से कम), उसमें भी सब नहीं पढ़ते। इसलिए अज्ञानवश शूद्रों से कठोर/रूखा व्यवहार देखा जाता है।

इसका राजनीति के लिए प्रयोग होता है, जिससे वैमनस्य बढ़ गया है। संविधान में आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई है।

संदर्भ

  1. श्री भूपेद्रनाथ सान्याल, श्रीमद्भगवद्गीता, 2005, गुरूधाम प्रकाशन समिति, भागलपुर बिहार, प्रथम संस्करण, भाग-१ पृ. ३२१ https://www.vvpbooks.com/bookDetail.php?bid=1948
  2. श्री भूपेद्रनाथ सान्याल, श्रीमद्भगवद्गीता, 2005, गुरूधाम प्रकाशन समिति, भागलपुर बिहार, प्रथम संस्करण, भाग-१ पृ. ३२२ https://www.vvpbooks.com/bookDetail.php?bid=1948
  3. श्री भूपेद्रनाथ सान्याल, श्रीमद्भगवद्गीता, 2005, गुरूधाम प्रकाशन समिति, भागलपुर बिहार, प्रथम संस्करण, भाग-१ पृ. ३२३ https://www.vvpbooks.com/bookDetail.php?bid=1948
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